संपादकीय लेख : अपनी भांजी की शादी समारोह अररिया(रानीगंज)से ब्रजेश भारती की रिपोर्ट :-
साहब ! अब तो हमें कोई नही पुछता है पर वो दिन भी हमारे थे जब हमें(पुरी टीम) एक रात दो-दो तीन-शादी में बुलाया जाता था। अब कोई नही पुछता साहब !ना उम्र रही ना ही टीम के वो लोग बचे(जिंदा) है, बस बड़े-बड़े लोग शाही शादी समारोह में शौक से एक दो घंटे गाने के लिये बुलाते है।
परम्परागत तुत-हू बताते |
यह कसक थी रामचन्द्र दास की।अपने आधा दर्जन साथियों के साथ जब वह मेरी भांजी डा.रिचा रागनी (सुपुत्री दिलीप कुमार सिंह संस्थापक यदुनन्दन पावित्री कालेज रानीगंज(अररिया) की शादी समारोह में गाने के लिये बुलाये गये थे। जब इसके संबंध में भांजे डा. लोकेश नंदन से पुछा तो बताया कि आज भी हमारे इलाके में यह परम्परा जिंदा है हमने स्पेशल दास जी को बुलाया है आज भी जमाना चाहे जितना भी आधुनिक हो जाय लेकिन शहनाई की शान की जगह कोई दुसरा संगीत वाद्य नही ले सकता है।
मैं अपने जीजा दिलीप कुमार सिह के साथ |
इस बीच जैसे ही वह आंगन में शहनाई की धुन बिखेरने लगा कानों में मधुर गीत के धुन पड़ते ही जब आंगन झांक कर देखा तो एक विडियो व फोटो क्लिक करने से अपने आप को नही रोक सका।
यह तो एक रामचन्द्र दास की कसक है ऐसे कई रामचन्द्र दास समय के साथ अत्याधुनिक युग में परम्परागत डीजे की चकाचौंध में गुम होती जा रही हैं।
परम्परागत शहनाई डीजे की चकाचौंध में गुम –
धीरे-धीरे शादी समारोहों से बाबुल की दुआओं भरे गीतों के बोल और शहनाई की गूंज डीजे और बैण्डबाजों की धुनों में गुम हो गई है।अब हॉट सॉग्स की चहुं ओर धूम मची है।महिला संगीत का क्रेज भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। हलांकि अभी महिला संगीत कुछ हद तक जिंदा है। एक जमाना था जब शहनाई को परम्परा का हिस्सा मानते थे, लेकिन आधुनिकता के आगे शाहनाई की सुरीली आवाज धीमी होती जा रही है।
शादी ही नही मातम में भी बजती थी –
ऐसा नहीं कि शहनाई शुभ अवसरों पर ही अनूठा वातावरण उत्पन्न करती थी, बल्कि मातम में भी शहनाई की धुन माहौल को गमगीन बना देती थी. शुभ अवसरों पर बजने वाली शहनाई की धुन को डीजे की तेज ध्वनि ने दबा दिया है. यदाकदा ही कहीं शहनाई के स्वर सुनने को मिलते हैं. राग-रागिनी के स्वरों को तालबद्ध करके शहनाई वादक कहीं भी किसी भी उत्सव व समारोह में संगीत का एक अनूठा वातावरण उत्पन्न कर देते थे, लेकिन बदलते परिवेश में सात सुरों के साथ अनोखा तारतम्य बिठाने वाली शहनाई आज तेज संगीत के प्रवाह में लुप्त प्राय: हो चुकी है।
पहले शान होती थी शहनाई अब डीजे है शान –
पहले राजा-महाराजाओं के दरबार में शहनाई शान समझी जाती थी।प्राय: लुप्त होती जा रही शहनाई की धुन के पीछे पश्चिमी संगीत के प्रति लोगों का बढ़ता रुझान और तेजी से होता इसका प्रचार-प्रसार है।शास्त्रीय संगीत से ताल्लुक रखने वाली शहनाई युवा पीढ़ी के लिए रास नहीं आ रही है।
तेज स्वरों से बजता डीजे ही युवाओं को रास आ रहा है।आर्केस्ट्रा की धुन पर थिरकने वाले युवाओं के लिए शहनाई का कोई महत्व नहीं है।बुजुर्ग भी नहीं समझाते इसका महत्व। बुजुर्ग भी युवा पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत से जुड़ी शहनाई की किदवंतियां नहीं सुनाते और न ही उन्हें शहनाई के महत्व को समझाते हैं।आधुनिकता की चकाचौंध और पश्चिमी संगीत का बढ़ता प्रचलन शहनाई के स्वरों का अस्तित्व खत्म करता रहा है।
कई लोगों का कहना है कि दरवाजों पर शादी-समारोह के दौरान शहनाई की धुन लोगों के हृदय को छूती थी।विदाई समारोह के दौरान शहनाई की धुन सुनते ही लड़की पक्ष के लोगों की आंखें स्वत: ही नम हो जाती थीं।