• रोम है पोप का मधेपुरा है गोप का के बीचश शरद यादव, दिनेश चंद्र यादव व पप्पू यादव के बीच त्रिकोणीय संघर्ष

सहरसा से ब्रजेश भारती की चुनावी समीक्षा : रोम है पोप का मधेपुरा है गोप का,यह कहावत अब तक यहां सटीक बैठ रही है जिसका नतीजा है कि इस सीट से एक साथ तीन दिग्गज यादव नेता चुनाव मैदान में आ चुके हैं।

वर्तमान परिसीमन में सहरसा जिले के तीन विधानसभा चुनाव क्षेत्र को जोड़ कर बनाया गया मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र बनाया गया है। गत चुनाव से इस बार सब कुछ उल्टा है। हालांकि 14 के चुनाव के दो दिग्गज शरद यादव व पप्पू यादव पुनः आमने सामने हैं।

पिछड़ा वर्ग को संविधान में 27 फिसदी आरक्षण देने वाला मंडल कमीशन आयोग के अध्यक्ष रहे बी पी मंडल की घरती रही मधेपुरा जिला इस बार के लोकसभा चुनाव में क्या गुल खिलाती है यह तो समय बताएगा लेकिन इस बार का चुनाव बड़ा रोचक व दिलचस्प होगा।

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मधेपुरा लोकसभा सीट हमेशा हाईप्रोफाइल सीट बनती रही है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का ये गढ़ रहा है तो जाप सुप्रीमो पप्पू यादव और शरद यादव के बीच की सियासी जंग भी यहां के वोटरों के लिए हमेशा रुचि का विषय रहता है।
मधेपुरा जिला उत्तर में अररिया और सुपौल, दक्षिण में खगड़िया और भागलपुर जिला, पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले से घिरा हुआ है।

शरद यादव (फाइल फोटो)

मधेपुरा लोकसभा यादव का मजबूत गढ़ माना जाता है। लालू यादव दो बार मधेपुरा सीट से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं।
गत चुनाव 2014 में पप्पू यादव ने राजद के टिकट पर चुनाव लड़ा था और जीते थे। अब पप्पू यादव अपनी अलग पार्टी बना चुके हैं। तब शरद यादव जेडीयू के नेता थे अब वे भी अपनी अलग पार्टी बना चुके हैं। यह अलग बात है कि इस बार शरद यादव अपनी पार्टी रहते हुए भी लालटेन थाम मैदान में हैं वहीं राजद सांसद रहते हुए भी पप्पू यादव जाप पार्टी से चुनाव मैदान में हैं।

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चुनाव इतिहास की बात करें तो यहां से 1967 के चुनाव में (चुंकि 1967 के परिसीमन बाद मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र बना) मधेपुरा सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने चुनाव जीता। 1968 के उपचुनाव में उन्होंने दोबारा जीत दर्ज किए। 1971 के चुनाव में यहां से कांग्रेस के चौधरी राजेंद्र प्रसाद यादव ने चुनाव जीता। 1977 के चुनाव में फिर भारतीय लोक दल के टिकट पर बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने चुनाव जीता।

1980 के चुनाव में फिर इस सीट को चौधरी राजेंद्र प्रसाद यादव ने छीन लिया। 1984 के चुनाव में मधेपुरा सीट पर कांग्रेस के चौधरी महावीर प्रसाद यादव विजयी रहे। 1989 में जनता दल ने इस सीट से चौधरी रमेंद्र कुमार यादव रवि को उतारा और उन्होंने जीत का परचम लहराया।

दिनेश चंद्र यादव (फाइल फोटो)

उसके बाद शरद यादव ने मधेपुरा को अपनी सियासी कर्मभूमि के रूप में चुना।1991 और 1996 के चुनाव में जनता दल के टिकट पर यहां से जीतकर शरद यादव लोकसभा पहुंचे। 1998 में आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने यहां से चुनाव जीता। 1999 में फिर शरद यादव जेडीयू के टिकट पर यहां से चुनाव जीते। 2004 में फिर लालू प्रसाद यादव ने इस सीट से विजय पताका फहराये।

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लालू सुप्रीमो ने इस चुनाव में छपरा और मधेपुरा दो सीटों से लोकसभा का चुनाव जीता। हालांकि, मधेपुरा से उन्होंने इस्तीफा दे दिया और इसके बाद फिर उपचुनाव हुए। इस बार आरजेडी के टिकट पर राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव जीतकर लोकसभा पहुंचे।

2009 में यहां से जेडीयू के शरद यादव फिर जीतने में कामयाब रहे। लेकिन 2014 में यहां से पप्पू यादव की चुनावी किस्मत एक बार फिर खुली और वे आरजेडी के टिकट पर जीतकर लोकसभा पहुंचे। हालांकि बाद में उन्होंने आरजेडी में रहते अपनी अलग पार्टी बना ली।

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अगर बात करें दिनेश चन्द्र यादव की तो यह लोकसभा क्षेत्र उनका गृह क्षेत्र है चुंकि इसी लोकसभा अन्तर्गत बनमा-ईटहरी प्रखंड आता है जो सोनवर्षा राज विधानसभा का हिस्सा ऐसे में यह लोकसभा उनका गृह क्षेत्र माना जाएगा। हालांकि वे पहली बार यहां से एमपी का एलेक्शन लड़ेंगे।

उनके संबंध में कहा जाता है कि शरद यादव व दिनेश यादव गुरू चेला है लेकिन ये राजनीति है यहां ना तो कोई किसी का गुरू होता है ना कोई किसी का चेला। जनता ही यहां सर्वोपरि होता है।वह चाहे जिसे गुरु बना दे चाहे चेला।

राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव (फाइल फोटो)

अगर बात करें संभावना की तो तीन यादवों की तिरकी में बाजी किसके साथ लगती है तो यह समय बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि राह किसी के लिए आसान नहीं है। अगर महागठबंधन का माय समीकरण मजबूत रहता है तो शरद यादव को फायदा होगा।

लेकिन पप्पू यादव की दावेदारी व निवर्तमान सांसद का प्रभाव व सेवा भाव इस समीकरण में छेद कर दे तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी। लेकिन देखना होगा कि यह कितना कारगर साबित होता है।

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वही एनडीए प्रत्याशी दिनेश चन्द्र यादव की बात करें तो पप्पू यादव के मैदान में आ जाने से मजबूत नजर आ रही है। लेकिन सहरसा जिले के तीन विधानसभा के बाद अन्य तीन विधानसभा पर यह निर्भर करता है कि वह कितना प्रभाव दिखा पाते हैं। चुंकि वे सब दिन सहरसा जिले के क्षेत्रों में अपनी मजबूत पकड़ व उपस्थित दर्ज कराते रहे हैं।

अब देखना दिलचस्प होगा कि इस बार के चुनाव में इस लोकसभा के मतदाता उंट को किस करवट बैठाते हैं।